रविवार, 12 जुलाई 2015

Agar kabhi kahi

A poem written years back : on 20th July 2004.....अगर कभी कही तेरा मेरा मिलन हो


ये चाँद सितारे हो, ये नदिया की धारा हो
जंगल के पेड़ हो, संदल सी शाम हो
अगर कभी कही तेरा मेरा मिलन हो

ये मस्त हवाए हो, ये रस्ते पथरीले हो
धरती की प्यास हो, आसमा की आस हो,
अगर कभी कही तेरा मेरा मिलन हो

प्रार्थना का स्वर हो, नृत्य तन्मय हो
सुरीली आवाज में मित्रो का वरदान हो
अगर कभी कही तेरा मेरा मिलन हो

तेरे चेहरे की शांति हो, लहरों की भांति हो
अचेतन में क्रांति हो, महल राजवंती हो
अगर कभी कही तेरा मेरा मिलन हो

तेरा मेरा साया हो, मुझ में तू समाया हो
की स्वर्ग सी भूमि पर शिव का तांडव हो
अगर कभी कही तेरा मेरा मिलन हो


रविवार, 5 जुलाई 2015

Kabhi

कभी सुला-सुलाकर  खुद को, जी लेती हूँ
कभी भुला-भुलाकर खुद को , जी लेती हूँ
कभी जगा-जगाकर खुद को, पी लेती हूँ
कभी मना-मनाकर खुद को, पा लेती हूँ

समय की धारा बस बहती रहती है
कभी रोक-रोककर खुद को, बहा लेती हूँ
कभी नोक-झोंक कर खुद को हँसा लेती हूँ
कभी होड़ लगाकर समय से, खुद को बीत लेती हूँ
कभी ज्योत जलाकर अ-मन की, खुद को चेत लेती हूँ