हर शाम मैं बूढी
हो जाती हूँ
और शांत भाव से रात
में विलीन हो जाती हूँ
हर सुबह फिर एक
नया जीवन आता हैं
अपना ही
‘miniature life’ देखकर
मैं और एक बार
अपनी पूर्णता में जी लेती हूँ |
सुबह की किरणे,
जैसे मेरे बचपन के पल
खिलती कलियाँ,
पत्ते और फूल,
जैसे मेरे परम
मित्र, निष्पाप,
सरल
फिर मैं जवान
होती हूँ सूरज के साथ
जोश में काम कर
लेती हूँ, सरे आम कर लेती हूँ
दुनिया को हिला
के रख देने का हौसला रखती हूँ |
बनाती हूँ रिश्ते
अलग अलग जाने-पहचाने
कुछ पिछले जन्मों
के करम
कुछ इस जनम के
याराने
फिर फंसती हूँ
दिन के जंजाल में
ह्रदय और विचार
के भंवर में
फिर रस्ते चुनने
पड़ते हैं
इस तरह जीवन को
मैं जीती जाती हूँ
जीवन की
चुनौतियों में हल-मिल जाती हूँ
अभी और यहाँ में
बहती चली जाती हूँ |
भूतकाल के पाश
कब किस ध्यानी को
पकड़ पाये
कर्मों के परिणाम
कब किस प्राणी को
माफ़ हुए?
इसलिये तो, गुरु
के रस्ते मैं चलती जाती हूँ
भरोसे की गठरी, और
intuition का सहारा लेकर
खुद को और तराशती
जाती हूँ |
फिर चुक जाता हैं
तेल मेरे दिये का
सूरज जब सर पर
आता हैं
अपने सर पर हाथ
रख देती हूँ
फिर धीरे धीरे
ढलान शुरू हो जाती हैं
जीवन की बाती
दुबली होके जलती हैं
अब मैं सारा
ध्यान खुद पर देती हूँ
खुद ही से खुद का
हिसाब शुरू करती हूँ
किसी का मुझ पर
उधार तो नहीं
किसी को लेकर मेरे
मन में बवाल तो नहीं
यूँ फिर, मैं शाम
तक “कुछ कही, कुछ अनकही“
अपनी पात्रता में
खिली हुई संतुष्ट आत्मा बन जाती हूँ |
इस तरह, हर शाम
मैं बूढी हो जाती हूँ
और शांत भाव से रात
में विलीन हो जाती हूँ
9-Jan-2017