सोमवार, 29 जून 2015

Juud jaate hain mujh se judnewale

जुड़ जाते है मुझ से, जुडनेवाले


And this one is dedicated to the new friends who walked in my life with the gift of poetry in their hearts and their words....:)

(Written on 21st-Nov-2013)

जुड़ जाते है मुझ से, जुडनेवाले
पहुँच जाते है मुझ तक, सराहनेवाले
शब्दों का साथ लेकर, आ जाते है
शब्दातीत के अनुभव से खिलनेवाले
जुड़ जाते है मुझ से जुडनेवाले

जीवन के जंजाल है , बहकानेवाले
कामना के अंदाज है, लटकानेवाले
मेरे नयेपन की क्षमता को जगानेवाले
दोस्त बन जाते है, आंकनेवाले
जुड़ जाते है मुझ से जुडनेवाले


रस-धारा का अमृत मंथन, पीनेवाले
ह्रदय के रस को, शब्द-प्याली में,  ढालनेवाले
बूँद-बूँद को इज्जत से, संभालकर, पिलानेवाले
प्रतिस्पर्धी में प्रीति-बिम्ब अपना, देखनेवाले
जुड़ जाते है मुझ से जुडनेवाले

गुरुवार, 25 जून 2015

Main Chalati Firati Kavita Hun

मैं चलती फिरती कविता हूँ
(Written on 7th Nov 2013)
जीवन हूँ , नस नस में बहती हूँ
परमात्मा की बेटी हूँ ,
रस की पेटी हूँ,
मैं चलती फिरती कविता हूँ

 नूर की बूँद बन कर
मैं ही आँखों से टपकती हूँ
खुद की तक़दीर बन कर
मैं ही जुबा से निकलती हूँ
गौतम बुद्ध का मौन भी मैं ही
कालिदास का प्रेम भी मैं ही
मैं ही शिव की भक्ति भी
क्यों की मैं चलती फिरती कविता हूँ

बंद आँखों की गहराई हु
प्रिय से मिलन की शाहनाइ हूँ
आसुओं की तनहाई भी मैं ही
अपनी कमाई भी खुद मैं ही
मैं ही जगाती हूँ खुद को
अनाहत नाद गाकर
क्यों की मैं चलती फिरती कविता हूँ

इज्जत से प्रेम करती हूँ
रूमी (RUMI) से इजाजत पाकर
रोग-निवारण करती हूँ
अपने ही श्वास का मरहम लगाकर
मैं ही मंतर पढ़ती हु
खुद की शुद्धि के
क्यों की मैं चलती फिरती कविता हूँ

युग युग से ढूंढ रही हूँ
खुद ही के अफसाने को, फिर भी
खोया था कभी जाने कैसे,
पा लेती हूँ फिर फिर से
फिर फिर से खुद से मिल जाती हूँ
क्यों की, मैं इस अस्तित्व की अभिव्यक्ति हूँ

मैं होश की धारा हूँ
इंद्र के बगीचे का सुन्दर फव्वारा हूँ
बुड्ढो का बचपन भी मैं ही
बुद्धों की बुद्धि भी मैं ही
मैं शक्ति अनंत अपार हूँ
क्यों की मैं इस अस्तित्व की अभिव्यक्ति हूँ

मंगलवार, 23 जून 2015

Karmayug

कर्मयुग
(Written on 15-Dec-2013)

क्या कहना इस समय की धारा का
कल से इस बहाव का नया मोड़ होगा||

ये देखो बीत चुका, एक जीवन युग
कल से नए कर्मयुग का, नया आरंभ  होगा||

होंगे इसमें साथी, सारथी, और महारथी
और नए ऋषियों के साथ, नया यज्ञ होगा||

होंगे इसमें नए वक्ता, भोक्ता और ज्ञाता
और नयी जिज्ञासा से, नया संवाद होगा||

पल बीते, छल बीते, मेरे अनंत कल बीते
कल से नए सुर-ताल का, नया संगीत होगा||

जीवन ये क्तिना अटल, अटल अतल और क्षणभंगुर
कल से नयी अनंतता का, और एक संगम होगा||

मन रे !!
अब न बनाना कोई घोसला, नए पेड़ पर
की तुझ को है उड़ते जाना, पंखो में आसमान भरकर||

मन रे !!
अब न करना कोई कारीगरी, न ही भटकना
की तुझ को है चलते जाना, खुद ही का दीप बनकर||

करना अपने कर्तव्य और रहना सजग, प्रज्वलित
जल में कमलवत, ऐसा तेरा सम्मान होगा ||

कल से नए कर्म-युग का, नया आरम्भ होगा ||


रविवार, 21 जून 2015

Mi Ayushyachi ek atal kahani

Written on 28th May 2015

मी
, आयुष्याची एक अटळ कहाणी
मी, साठलेले वळचणीचे पाणी
मी, गुलमोहरावर दवबिंदूचे पाणी
मी, जगले येथे अगणित अगेय गाणी
मी, आयुष्याची एक अटळ कहाणी

मी, अस्तित्वाच्या आदि-शब्दाची कणी
भरधाव ढकलली कधी स्वारी माझी कोणी
मी चालूनी आले एक लांब पायवाट
अन जोडून नाती अनेक अनाम अनवाणी
मी, आयुष्याची एक अटळ कहाणी

मी जागले माझिया वचनांना
अन राखले स्वाभिमानी बाण्याला
फशी न पडता, हसू न विकता
मी जगले ऊंच झेप अन भरारी
मी, आयुष्याची एक अटळ कहाणी

अजूनही मी वाट ही जगतेच आहे
मनोगत अंतरीचे डोळ्यात झळकते आहे
अशीच जाईन अनंत अनंत नगरी
मी बुद्धत्वाचा बोध इथे या वळणी
मी, आयुष्याची एक अटळ कहाणी

शनिवार, 20 जून 2015

Sapna yah sansaar

Written on 16th March 2002

सपना यह संसार, मन रे, सपना यह संसार,
बस एक जैसे है, क्या चन्दन क्या अंगार!!!

है राही सारे अपने अपने, पर मेरी है ये डगर
तेरा प्रेम रहा उस पार, सिर्फ मेरा है सफ़र!!

जाने कहा से नदिया चली, कहा पर है मंज़र
ये सारे एक जैसे, जाने कहा होश, जाने उजाला किधर!!

तेरा साथ है भी नहीं भी, मेरा होना है भी नहीं भी
मन के रास्ते कितने ऊँचे नीचे, जाने सफल है किधर!!

ये कौन है, नींदे उडाता है, होश जगाता है बार बार
मंदिर की सीढियों पर भी क्यूँ , मन सोता है बार बार!!

मन के मंजीरे खनकते है, तन की जंजीरे  खींचती है
मेरी गागर उसका सागर, जाने कौन राही, जाने कौन डगर !!

शुक्रवार, 19 जून 2015

Anaahat

अपने पहले-पहल ब्लॉग पर पेश कर रही हूँ, मेरी एक कविता। उम्मीद करती हूँ की रसिकों को पसंद आए। इसे मैंने लिखा था 18 जनवरी 2015 को।


अनाहत :)


अपनी ही धुन मे, जाने कब से, यूं ही बही जाती हूँ
पल-पल की चादर पर, अथक अनाहत चलती जाती हूँ
कभी इच्छाओं के होसले, बना लेते हैं राह पर घोसले
एक ही पल मे हजारो, आलिशान महलों से गुजर जाती हूँ

कभी ख्वाबो को बिखरे देखकर, मैं समेटती जाती हूँ
इधर-उधर गिरे हुए, खुद ही के अनगिनत टुकड़ो को
अपने हृदय की ज्वाला मे, समिधा बनाकर समाये जाती हूँ
साँसो के यज्ञ मे, खुद ही का अर्पण किए जाती हूँ

फिर लौट आती हूँ, इस पल की कायनात मे
फिर खुद ही को साँसो पर, पहरे के लिए बैठा देती हूँ
की एक एक सांस आए तो अनंत बन के आए
और जाये तो अनादी हो कर आसमान  मे फ़ेल जाए
फिर इस आसमान मे देखती जाती हूँ
खुद ही के अहसासों को फिर फिर से जिये जाती हूँ
प्यासी हो कर ओशो को पियक्कड़ की तरह पिये जाती हूँ